*अधर्मांधता....😎*धर्म-जो कि जीवन की कला है--🌹🌹🌹

*अधर्मांधता....😎*



*🛑पहला प्रश्नः ओशो, कल प्रातः यहां बुद्ध-कक्ष में ठीक प्रवचन के दरम्यान एक धर्मांध हिंदू युवक ने छुरा फेंक कर आपको मारने की चेष्टा की, जो हमारे सौभाग्य से, मनुष्यता के सौभाग्य से निष्फल गई। और यह जघन्य कृत्य धर्म के नाम पर किया गया।*


*ओशो, इस प्रसंग में हमें दिशा-बोध देने की अनुकंपा करें।*


धर्म-जो कि जीवन की कला है--उसे उन्होंने मरने-मारने का धंधा बना दिया। 
धर्म तो विज्ञान है जीने का-
कैसे जियो? और धर्म न हिंदू होता है, न मुसलमान होता है, न ईसाई होता है। 


प्रेम हिंदू होता है, प्रेम ईसाई होता है? अगर प्रेम हिंदू नहीं होता तो प्रार्थना कैसे हिंदू हो सकती है?


क्योंकि प्रेम की ही आत्यंतिक अवस्था तो प्रार्थना है। और प्रार्थना का ही कमल जब खिल जाता है तो उस अनुभव का नाम ही तो परमात्मा है। 


परमात्मा हिंदू है या मुसलमान या ईसाई? लेकिन जब तक यह पृथ्वी इन खंडों में बंटी रहेगी, तब तक धर्म के नाम पर राजनीति चलती रहेगी।


*तुम कहते होः एक धर्मांध हिंदू युवक ने छुरा फेंक कर आपको मारने की चेष्टा की। कोई भी व्यक्ति वस्तुतः धर्मांध नहीं होता। धर्म तो आंख है। इसलिए ‘धर्मांध’ शब्द उपयोग में तो आता है, मगर ठीक नहीं, सम्यक नहीं। अधर्मांध कहना चाहिए। धर्म के नाम पर होता है, लेकिन है तो अधर्म।*


धर्मांध तो कोई कैसे हो सकता है? 
धर्म तो चक्षु है। वह तो आंख है। उससे बड़ी तो कोई आंख नहीं। जिस आंख से परमात्मा दिखता हो, जिस आंख से जीवन के सत्य का अनुभव होता हो, साक्षात्कार होता हो जिस आंख से--स्वयं की निजता का, स्वयं के परम देदीप्यमान रूप का, स्वरूप का, सच्चिदानंद का!


लेकिन हम ‘धर्मांध’ का रूढ़ उपयोग करते हैं। रूढ़ उपयोग यह है कि कोई हिंदू पागल है, कोई मुसलमान पागल है, कोई ईसाई पागल है--तो इनको हम धर्मांध कहते हैं। इनको धर्मांध कहना नहीं चाहिए; ये सिर्फ अंधे हैं, अंधे कहना काफी है। हां, धर्म का चोगा ओढ़े हैं। 


अब अंधा अगर राम-नाम की चदरिया ओढ़ लेगा तो धर्मांध हो जाएगा क्या? या अंधा अगर कुरान-शरीफ सिर पर लेकर चलने लगेगा तो धर्मांध हो जाएगा क्या? 
धर्म तो वही जो आंख खोले और जिनकी आंख खुली, उन्हें स्वभावतः दिखाई पड़ा कि धर्म तो एक ही हो सकता है।


बुद्ध बौद्ध नहीं थे, स्मरण रहे। 
और महावीर जैन नहीं थे, भूल मत जाना। और जीसस ईसाई नहीं थे, कभी किसी को यह भ्रांति पालने के लिए जरा भी गुंजाइश नहीं है। मोहम्मद मुसलमान नहीं थे। 
लेकिन मोहम्मद को जो नहीं समझेंगे वे मुसलमान हो जाएंगे। यह चमत्कार रोज घटता है इस दुनिया में। जो बुद्ध को नहीं समझते वे बौद्ध हो गए हैं। बौद्ध होता ही वही है जो बुद्ध को नहीं समझता। जो बुद्ध को समझेगा वह बुद्ध होगा, बौद्ध क्यों होगा? भेद को खयाल में रखना। जो महावीर को समझेगा वह जिन होगा, जैन नहीं। जिन का अर्थ हैः जिसने अपने को जीता। और जैन का अर्थ हैः जीते हुओं की बातों को जो मान कर अंधे की तरह स्वीकार करके चल रहा है। विश्वासी है, अनुभवी नहीं।


*मोहम्मद को जिन्होंने मान लिया वे मुसलमान। मान लिया, जाना नहीं। जान लेते तो स्वयं भी मोहम्मद होते। जान लेते तो उनके जीवन में भी कुरान वैसे ही उतरती जैसे मोहम्मद के जीवन में उतरी। परमात्मा किसी के साथ पक्षपात तो नहीं करता। अगर मोहम्मद के जीवन में कुरान उतारी तो तुम्हारे जीवन में क्यों न उतारेगा! बस चाहिए वही अभीप्सा, वही प्यास, वही आकांक्षा, वही ज्वलित-प्रज्वलित भाव-दशा! वही दीवानापन, जो परवाने में होता है शमा की तरफ जाने का--जिस दिन किसी के भीतर पैदा होता है परमात्मा की तरफ जाने का उस दिन कुरान उसके जीवन में उतर आएगी; उसे बाहर की कुरानों को पकड़ने की जरूरत नहीं रह जाती। बाहर की किताबों को तो वही लोग पकड़ते हैं जो भीतर की किताब को पढ़ने में असमर्थ हैं। और भीतर की किताब न पढ़ी तो बाहर की तुम कोई भी किताब समझ न पाओगे। शब्द याद हो जाएंगे, अर्थ चूक जाओगे। अंधों को अर्थ दिखाई नहीं पड़ते--पड़ नहीं सकते।,,,,,,,,,*  


ओशो.....💞
सुमिरन मेरा हरी करें 03