भगवान! ईश्वर- प्राप्ति में कार्य-कारण नहीं, तो फिर ध्यान का औचित्य समझाने की कृपा करें। 🌹🌹

भगवान! ईश्वर- प्राप्ति में कार्य-कारण नहीं, तो फिर ध्यान का औचित्य समझाने की कृपा करें।


'रामनाथ शर्मा!


ध्यान का कोई औचित्य नहीं है। उचित - अनुचित की भाषा बहुत पीछे छूट जाती है। ध्यान उचित - अनुचित का अतिक्रमण है। उचित और अनुचित तो मन के विचार हैं; और ध्यान अ-मन की अवस्था है। उचित - अनुचित तो बाजार की बातें हैं; ध्यान तो अंतर्यात्रा है। उचित - अनुचित तो व्यवहार है; ध्यान तो अंतर्दशा है।


लेकिन मैं तुम्हारा प्रश्न समझा। तुम यह पूछ रहे हो कि ईश्वर -प्राप्ति में कार्य -कार नहीं। निश्चित ही ईश्वर -प्राप्ति में कोई कारण नहीं है। तुम ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते जिससे ईश्वर जाया जा सके। तुम कुछ कर सके तो कारण होता।


तुम्हारे किये ईश्वर मिलता तो कुछ कारण होता। ईश्वर पाने में कोई भी कारण काम नहीं आता। इसीलिए तो ईश्वर वितान का अंग नहीं है, इसीलिए तो विज्ञान ईश्वर को अंगीकार नहीं कर पाता। क्योंकि विज्ञान का एक मौलिक आधार है और वह है कार्य -कारण का सिद्धांत। जो चीज कार्य -कारण के सिद्धांत के भीतर है वह विज्ञान स्वीकार करेगा। सौ डिग्री तक पानी गर्म करो, भाप बनता है; फिर सौ डिग्री तक गर्म चाहे मस्जिद में करे चाहे मंदिर में, चाहे गुरुद्वारा में, चाहे चर्च में, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। ऐसा नहीं है कि मंदिर में निन्यानबे डिग्री पर बन जाएगा भाप और मस्जिद में थोड़ा देर लगाएगा कि यह मांसाहारियों की जगह है।


सौ डिग्री पर ही बनेगा, चाहे मस्जिद हो चाहे मंदिर हो, हिंदू -मुसलमान का कोई भेद न करेगा। फिर चाहे भारत हो और चाहे पाकिस्तान हो और चाहे चीन हो चाहे जापान हो, सौ डिग्री पर ही भाप बनेगा। सौ डिग्री गर्मी कारण है। जैसे ही कारण पूरा हुआ, पानी को भाप बनन ही पड़ेगा। लेकिन इसका एक अर्थ हुआ कि पानी गुलाम है। सौ डिग्री तक तुमने गर्मी पैदा कर दी तो अब पानी मालिक नहीं है कि कह सके कि आज दिल नहीं, कि आज भाप न बनेंगे, कि आज उमंग ही नहीं हो रही, आज आकाश में उड़ने का इरादा ही नहीं है, फिर कभी देखेंगे, कि आज चित्त बहुत खिन्न है। पानी कुछ भी न कह सकेगा। पानी की कोई स्वतंत्रता नहीं है।


कार्य-कारण का सिद्धांत स्वतंत्रता का अंत है-हत्या है। जहां कार्य -कारण का सिद्धांत लागू होता है वहां नियति है, वहां भाग्य है। यह पानी का भाग्य है कि उसे सौ डिग्री पर भाप बनना ही पड़ेगा। यह अपरिहार्य भाग्य है, अनिवार्य भाग्य है। इससे बचने का कोई उपाय नहीं है।


परमात्मा कार्य -कारण के भीतर नहीं है, नहीं तो गुलाम होता।... कि किसी आदमी ने सौ उपवास के दिये कि परमात्मा को आना ही पड़ेगा। तब तो परमात्मा आदमी से छोटा होता, जैसे पानी आदमी से छोटा है। तब तो हमारी मुट्ठी में होता; जैसा चाहते वैसा नचाते, जहां चाहते वहां बिठाते। फिर तो परमात्मा प्रयोगशाला में होता। फिर तो हम नई -नई तरकीबें खोज लेते। जैसे पुराने जमाने में लोग पानी गर्म करते तो लकड़ी जलाते, बमुश्किल लकड़ी जलती, फिर पानी गर्म होता, घंटों लगते। अब हम जानते हैं कि बिजली से क्षण में हो जाए। और विद्युत से क्षण में होता है, अणु की भट्टी से तो क्षण भी न लगे। जैसे गर्म तवे पर पानी की बूंद बस छन्न से उड़ जाती है हवा में, ऐसे सागर के सागर उड़ सकते हैं अणु -ऊर्जा से- क्षण में!


अगर कार्य -कारण का सिद्धांत परमात्मा पर लागू होता हो तो महावीर ने बारह साल में पाया, पच्चीस सौ साल मैं हमने ऐसी तरकीबें खोज ली होतीं कि बारह साल लगते? बारह मिनट में पाते।... कि और भी जल्दी कद लेते, नये -नये यंत्र खोजते, नई -नई व्यवस्था करते। अगर उपवास से ही परमात्मा मिलता हो, तो उपवास करता क्या है? तुम्हारे शरीर में से एक पौंड वजन रोज कम करेगा। तुम्हारे भोजन के यंत्र को निष्किय कर देगा, तुम्हारे पेट की अंतड़ियों को खाली कर देगा। लेकिन यह सब तो विज्ञान के द्वारा घड़ियों में हो सकता है, इसे किये महीनों की क्या जरूरत है? इसमें तो कोई बड़ी अड़चन नहीं है। अगर इससे परमात्मा मिलता हो तो महावीर ने बारह साल उपवास किये, यह तो दो -चार दिन में हो जाएगा।


तुम्हारे शरीर की इतनी शुद्धि तो ऐसे ही हो सकती है।


लेकिन विज्ञान की सीमा के बाहर है परमात्मा; पकड़ में नहीं आता; किसी प्रयोग में नहीं आता। कार्य -कारण का तो कोई संबंध परमात्मा से नहीं है। इसीलिए रामनाथ का प्रश्न ठीक है : फिर ध्यान का क्या औचित्य है?


प्रश्न इसलिये उठ रहा है कि रामनाथ के मन में यह भाव होगा कि ध्यान कारण है और परमात्मा कार्य है। ध्यान कारण नहीं है। ध्यान केवल अवसर है, कारण नहीं। ध्यान निषेधात्मक है, कारण विधायक होता है। इस भेद को समझो।


तैसे मैंने अभी तुमसे कहा : सूरज निकला। यह तुम्हारी इच्छा से नहीं निकल सकता कि तुम जब चाहो तब निकल आये। लेकिन एक काम तुम कर सकते हो कि सूरज निकला हो और तुम आंख बंद किये बैठे रहो। तो लाख सूरज सिर पटके, तुम्हारे लिये तो नहीं निकला सो नहीं निकला। सूरज तुम्हारी इच्छा से नहीं निकलता; लेकिन तुम्हारी इच्छा से तुम चाहो न देखना तो नहीं देखो, जन्मों - जन्मों तक न देखो, आंख बंद रख सकते हो। द्वार -दरवाजे बंद रख सकते हो। परदे मोटे लटका सकते हो कि तुम्हारे कमरे मैं अंधकार ही रहे, दिन में भी अंधकार रहे। यह तुम कर सकते हो।


ध्यान की भी ऐसा ही निषेधात्मक प्रयोजन है। ध्यान कहता है परदे खोलो। परदे खोलने से सूरज के पैदा होने का कोई संबंध नहीं है। ध्यान कहता है। खिडकिया, द्वार -दरवाजे खोलो। द्वार -दरवाजे खुले हों तो जब सुबह होगी तब तुम्हारे जीवन में रोशनी भर जाएगी। सुबह तो जब होगी तब होगी। सुबह के तो अपने राज हैं, अपने रास्ते हैं, अपना मार्ग है।


परमात्मा को जब आना है तब आएगा; तुम खींचकर नहीं ला सकते। लेकिन इतना तुम कर सकते हो कि जब परमात्मा आये तो तुम मौजूद रहो। द्वार पर बदन-वार बौध सकते हो, दीये जला सकते हो; द्वार पर बांसुरी बजा सकते हो; उसके स्वागत में फूल बिछा सकते हो, पलक -पावड़े बिछा सकते हो। आएगा तब आएगा। कार्य -कारण की बात नहीं कि सौ डिग्री हमने पूरी कर दी, अब आना ही पड़ेगा; ऐसी कोई अपरिहार्यता नहीं है। आएगा तब आएगा। प्रसाद जब बरसेगा तब बरसेगा। लेकिन इतना तुम कर सकते हो कि प्रसाद बरसे तो तुम वंचित न रह जाओ। तुम अपना सारा कूड़ा-करकट खाली कर सकते हो कि जब आये अतिथि तो तुम्हें रहने योग्य पाए। तुम मंदिर बन सकते हो ध्यान परमात्मा को नहीं जाता, तुम्हें मंदिर बनाना है। ध्यान परमात्मा को नहीं लाता। लेकिन तुम्हें उसके स्वागत के लिए तत्पर करता है। ध्यान उत्सव है, अवसर है।


ध्यान में औचित्य मत खोजो। लेकिन हमारा मन ऐसा है कि हर चीज में साधन-साध्य की बातें खोजता है। हमारा मन दुकानदार का है : लाभ क्या होगा?


लोग मुझसे आकर पूछते हैं :


' ध्यान करेंगे तो लाभ क्या होगा?' जरा सोचते हो, लाभ की भाषा और ध्यान!... 'मिलेगा क्या?' आदमी पहले पूछता है: मिलेगा क्या? ध्यान तो उत्सव है, अपने- आप में आनंद है। द्वार खुला हो, पक्षियों के ये गीत तुम्हारे द्वार पर प्रवेश करने लगें; ये वृक्षों की सुगंध तुम्हारे नासापुटों में भर जाए! यह सूरज, ये चाद-तारे तुम्हें दिखाई पड़ने लगें। यह अस्तित्व तुम्हारे अनुभव में आने लगे। परमात्मा कहीं और थोड़े ही है-यहीं है, यहीं है, अभी है। कण-कण में है! मगर तुम जड़ हो। ध्यान परमात्मा को नहीं लायेगा; तुम्हारी जड़ता को तोड़ेगा।


ध्यान को तुम परमात्मा से जोड़ो ही मत। इसीलिये तो बुद्ध भी ध्यान की शिक्षा दे सके। क्योंकि परमात्मा से कोई लेना-देना ही नहीं है। महावीर भी ध्यान की शिक्षा दे सके क्योंकि परमात्मा से कुछ लेना-देना नहीं है।


चकित होओगे जानकर तुम कि पतंजलि ने परमात्मा को भी ध्यान करने के लिये एक निमित्त माना है। यह तुम चकित होओगे जानकर, उल्टी हो गयी बात। आम-तौर से लोग सोचते हैं कि ध्यान कारण है, परमात्मा कार्य; ध्यान निमित्त है, परमात्मा उसका लक्ष्य। पतंजलि ने कहा है कि परमात्मा ध्यान करने में सिर्फ एक आलंबन है, एक निमित्त। कुछ लोग हैं जो बिना परमात्मा के ध्यान नहीं कर सकते, तो चलो भाई, मान लो परमात्मा को और ध्यान तो करो। चलो इसीलिए ध्यान करो कि ध्यान करने से परमात्मा मिलेगा। हालांकि ध्यान करने से परमात्मा के मिलने का कोई संबंध नहीं है। ध्यान तुम करोगे तो तुम खुलोगे, तुम प्रगट होओगे। तुम्हारी कली जो बंद -बंद है, विकसित होगी, कमल बनेगा। और उस कमल की अनुभूति का नाम ही भगवत्ता है। भगवान व्यक्ति नहीं है-खुले हुए कमल की अभिव्यक्ति। वह आनंद जो फूल के खिलने पर उपलब्ध होता है, जै तुम्हारी चेतना का कमल खुलेगा तो उस आनंद का नाम भगवत्ता है।


कार्य -कारण का कोई संबंध नहीं है। औचित्य की कोई बात नहीं है। ध्यान तो एक दीवानगी है। यहां लाभ -हानि का हिसाब, इतनी होशियारी से नहीं चलेगा। पहले पक्का हो जाए कि क्या मिलेगा, तब ध्यान करोगे, तो कभी ध्यान ही न कर सकेंगे।


जीवन में कुछ तो रहने दो जो औचित्य के पार हो! जीवन में कुछ तो बचने दो जो साधन न हो, कारण न हो। जीवन में कुछ तो बचने दो जो बस अपने - आप में अपना साध्य हो। नाचने का मजा अपने में है। नाचना क्या अपने में काफी नहीं? है।, जो न नाच सकते हों, बिलकुल ही पंगु हों, लकवा खा गये हों, उनके लिये जरूरत हो तो भगवान की धारणा को बना लें। पहले कृष्ण की मूर्ति खड़ी कर लें, फिर नाचे। अगर तुम नाच सकते हो तो कृष्ण के आसपास नाचने का सवाल नहीं है; जहां तुम नाचोगे, कृष्ण आसपास होंगे। नाचोगे तो कृष्ण को आसपास होना ही है। नृत्य की भाव - भंगिमा भगवत्ता है।


जब तुम शून्य होकर बैठ जाओगे तो परमात्मा नहीं तो और कौन होगा? जब तुम मिट जाओगे तो जो बचेगा उसका नाम परमात्मा है।


 हंसा तो मोती चूने-(लाल नाथ)
प्रवचन-3


 ओशो