*गुरु बनाना आसान है,,,* *शिष्य बनना मुश्किल है'''* ================🌹🌹🌹

*गुरु बनाना आसान है,,,*
*शिष्य बनना मुश्किल है'''*
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नानक को हम गुरु कहते हैं। जब कि नानक का कुल जोर इस पर है कि आप शिष्य हों। उनका गुरु होने पर जोर जरा भी नहीं है। जोर है कि आप शिष्य हों। 


उस शिष्य से ही सिक्ख बना। सिक्ख कोई धर्म नहीं है। वह सिर्फ डिसाइपलशिप है, वह कोई रिलीजन नहीं है। वह कोई पंथ नहीं है। 


सिक्ख का मतलब हैः वह आदमी जो शिष्य होने को तैयार हो। द एटीट्यूड आॅफ डिसाइपलशिप जिसमें है, जो सीखने को तैयार है, वह सिक्ख है। 


तो जोर तो इस पर है कि आप शिष्य बनें, लेकिन हम शिष्य तो नहीं बनेंगे। हम उनको गुरु बना लेंगे। यह बिल्कुल उलटी बात है। इसमें बहुत फर्क है। इसमें जमीन-आसमान का फर्क है। 


जब हमें शिष्य बनना पड़ेगा तो हमें बदलना पड़ता है। और जब हम दूसरे को गुरु बनाते हैं तो हमें बदलने की कोई जरूरत नहीं रह जाती, सिर्फ पूजा करना काफी होता है। शिष्य बनना बड़ी मुश्किल की बात है। गुरु बनाना बहुत आसान मामला है। 


आपको कुछ भी नहीं करना पड़ता, 
वह दूसरे का मामला है। 
एक आदमी को आप गुरु कह देते हैं, 
आप निपट गए। आपने आदर दे दिया, बात समाप्त हो गई। लेकिन अगर आपको शिष्य बनना हो तो आपको पूरी जिंदगी बदलनी पड़ेगी। वह कठिन मामला है। 


*शिष्य बनना बहुत कठिन है।*
*गुरु बनाना बहुत आसान है।*


क्योंकि गुरु बनाने से ज्यादा आसान और क्या होगा? क्योंकि गुरु बनाने में आपको कुछ भी नहीं करना है। आपका कोई संबंध नहीं गुरु बनाने से। सारा जोर, सदा उन लोगों का जोर, जो जानते हैं, इस बात पर है, कि आप सीखो। 


लेकिन हमारा जोर यह है कि आप सिखाने वाले हो। हमारा जोर तत्काल बदल जाता है। हम फौरन कहते हैं कि तुम हो गुरु। और हम तुम्हें आदर देते हैं। अब यह बड़े मजे की बात है, कि नानक तो कम से कम गुरु बनने को राजी नहीं हो सकते। 


दुनिया का कोई भी वह आदमी जो गुरु की हैसियत का है, यानी जो गुरु बन सकता है, वह गुरु बनने को राजी नहीं होगा; और जो गुरु बनने को राजी होगा, वह गुरु बनने की हैसियत का नहीं होता। 


जो भी आदमी गुरु बनने की स्थिति में है, वह तो कहेगा परमात्मा गुरु है। वह कभी बीच में खड़ा नहीं होगा। 


और जो आदमी गुरु बनने की हैसियत में नहीं है, वह कहेगा, मैं गुरु। और अगर परमात्मा तक जाना है तो मुझसे जाना पड़ेगा। तो इस तरह के लोग तो गुरु बनना न चाहेंगे। इस तरह के लोग सिर्फ शिष्य बनना हमें सिखाना चाहेंगे। 


अब यह भी बड़े मजे की बात है, कि अगर आप किसी एक व्यक्ति को गुरु मान लें तो आपके शिष्यत्व की सीमा बंध जाती है। फिर आप उसी से सीखते हैं, दूसरे से नहीं सीखते। 


लेकिन अगर आप सिर्फ शिष्य बन जाएं तो आप सारे जगत से सीखते हैं किसी एक से सीखने का सवाल नहीं। इसलिए शिष्य होना बहुत इनफाइनाइट बात है। और गुरु बनाना बहुत फाइनाइट रिलेशनशिप है। 


इसमें एक, एक आदमी से हम संबंध जोड़ रहे हैं। और जब हम एक को गुरु बनाएंगे तो उससे जरा भी कोई भिन्न होगा तो उससे दुश्मनी हो जाएगी। उसके विपरीत होगा तब तो पक्की दुश्मनी हो जाएगी। 


लेकिन अगर हम सिर्फ शिष्य-भाव रखते हैं तो भिन्न से क्या दुश्मनी? विपरीत से क्या दुश्मनी? हम दोनों से सीख लेंगे। हम दोनों से ही सीख लेंगे। जो जहां से मिल जाएगा, वहां से सीख लेंगे। अंधेरे से भी सीख लेंगे, उजाले से भी सीख लेंगे; मस्जिद से भी सीख लेंगे, मंदिर से भी सीख लेंगे; कुरान से भी सीख लेंगे, बाइबिल से भी सीख लेंगे। 


लेकिन अगर एक बार हमने कह दिया कि कुरान ही बस, तो फिर हम गीता से नहीं सीखेंगे। फिर कठिनाई होगी, फिर मुश्किल होगी। 


तो नानक जैसे व्यक्ति किसी को रोकेंगे नहीं। वे इतना ही कहते हैं कि तुम सीखने के लिए खुले रहो। सिक्ख का मेरे लिए मतलब ही यही है वह सीखने के लिए खुला हो। और अगर उसे कहीं भी सीखने को मिल जाए तो सीखने की तैयारी...  


बड़ी कठिन बात है सीखने की तैयारी! 
क्योंकि अक्सर मन हमारा सिखाने का होता है, सीखने का नहीं होता।  गुरु होना बहुत आसान बात है। शिष्य होना बहुत मुश्किल बात है। 


गुरु तो कोई भी होना चाहता है। 
जहां भी मौका मिल जाए आदमी गुरु बन जाता है। शिष्य बनना बहुत ही कठिन बात है। 


ओशो...🌹
प्रेम नदी के तीरा-6