*समाधि कि शराब*
संतों ने परमात्मा को शराब कहा है।
समाधि को शराब कहा है।
कारण है। शराब में कुछ बात है।
मेरे देखने में यही आया है कि जो लोग भी शराब की तरफ उत्सुक होते हैं, वे जरा-सी चूक कर रहे हैं; बड़ी जरा-सी चूक। उन्हें ध्यान की तरफ उत्सुक होना था। उनकी गहरी आकांक्षा ध्यान की है।
इसलिए मेरे अनुभव में ऐसा आया है कि जिसने कभी शराब नहीं पी है, वह शायद ध्यान कर भी न पाए। उसके भीतर आकांक्षा नहीं है। वह शराब तक नहीं पीया है, ध्यान क्या खाक करेगा!
उसे बेहोश होने की, मस्त होने की धारणा ही नहीं है। डूबने का उसने मजा ही नहीं जाना है, उसको रस ही नहीं आया है, स्वाद ही नहीं पकड़ा है।
शराबी मुझे स्वीकृत है,,,
क्योंकि मैं जानता हूं कि उसके शराब के कृत्य में भूल हो सकती है, लेकिन शराब की आकांक्षा में भूल नहीं है। उसने गलत शराब चुन ली है, इतनी भर भूल है। उसे ठीक शराब चुननी थी,
वह हम चुना देंगे, वह हम उसे पकड़ा देंगे।
वह ठीक मधुशाला में आ गया, अब भाग न पाएगा।
मेरे देखे, गलत कृत्य सिर्फ इसीलिए जीवन में हैं, क्योंकि उनके द्वारा तुम कुछ पाना चाहते हो; तुम्हें होश नहीं है, वह उनसे मिलेगा नहीं।
शराब से कहीं समाधि मिली है?
थोड़ी देर के लिए विस्मरण मिलेगा और बड़ा महंगा। शरीर को नुकसान होगा, मन को नुकसान होगा। और यह भी संभावना है कि अगर यह बहुत ज्यादा शराब चलती रही, चलती रही, तो तुम्हारा होश इतना खो जाए कि तुम्हें समाधि की तरफ जाने में पैर ही डगमगाने लगें। उस तरफ तुम कभी जा ही न सको।
कृत्य का कोई बहुत मूल्य नहीं है,
तुम्हारे होने का मूल्य है। तुम्हारा होना इतना मूल्यवान है, इतना परम मूल्य है उसका कि तुम क्या करते हो, इसका हम कहां हिसाब रखें! उस पर ध्यान देते हैं भीतर, तो परमात्मा खड़ा दिखाई पड़ता है,
हाथ में भला हो कि तुम सिगरेट पी रहे हो। अब सिगरेट पर ध्यान दें कि भीतर के परमात्मा पर ध्यान दें।
हम तो भीतर के परमात्मा को पुकारेंगे।
अगर वह पुकार सून ली गई, सिगरेट हाथ से छूट जाएगी। वह छूट जानी चाहिए। छोड़ने की जरूरत नहीं आनी चाहिए, छूट जानी चाहिए।
हम तो भीतर की शराब पिलाके, बाहर की छूट जाएगी। छोड़ने के लिए हमारी कोई जल्दी भी नहीं है, कोई आग्रह भी नहीं है। छूटनी चाहिए। यह सहज ही फलित होगा। यह तुम्हारा कृत्य नहीं होगा।
जिस आंख से तुमने मेरी तरफ देखा है, उसी आंख से अपनी तरफ देखो। और जिन हाथों से और जिस श्रद्धा से तुमने मेरे पैर छुए हैं, उसी श्रद्धा और उन्हीं हाथों से अपने पैर छुओ। मैं तुम्हारे भीतर भी हूं।
बस, उसी दिन रूपांतरण शुरू हो जाता है।
ओशो....🌹
गीता दर्शन -8, अध्याय-18