*संगठन नहीं,,, सिर्फ मैत्रीभाव !* 💞

*संगठन नहीं,,, सिर्फ मैत्रीभाव !* 💞


मेरे लोग व्यक्तिगत रूप से मेरे से जुड़े हैं। और चूँकि वे सभी एक ही मार्ग पर हैं, निश्चित ही वे एक-दूसरे के साथ परिचित हैं। इसलिए एक तरह का मैत्री-भाव, एक प्रेम का माहौल बनता है;


लेकिन मैं इसे किसी तरह का रिश्ता नहीं कहना चाहता हूँ। शिष्यों के आपसी रिश्तों के कारण कई तरह के संगठन पैदा हुए।* 


जबकि सच तो यह है कि शिष्य आपस में जरा भी संबंधित नहीं हैं, क्योंकि प्रत्येक शिष्य अपनी निज क्षमता के अनुसार सद्गुरु से जुड़ा है।


सद्गुरु लाखों शिष्यों से जुड़ सकता है, लेकिन यह जुड़ाव व्यक्तिगत है, न कि संगठन- जैसा। शिष्यों के बीच कोई रिश्ता नहीं है। हाँ, उनमें एक तरह का मैत्री-भाव है, एक तरह का प्रेम-भाव।


मैं 'रिश्ते' शब्द को टाल रहा हूँ क्योंकि यह बंधन है। मैं इसे मित्रता (friendship) भी नहीं कह रहा हूँ, बल्कि मैत्री-भाव (friendliness) कह रहा हूँ; क्योंकि वे सभी सहयात्री हैं, एक ही राह पर यात्रा करने वाले, एक ही सद्गुरु के प्रेम में --


लेकिन वे एक-दूसरे से सद्गुरु के द्वारा जुड़े हुए हैं, वे एक-दूसरे से सीधे नहीं जुड़े हैं।


अतीत में यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात हुई है: शिष्य संगठित हो गए, आपस में स्वयं जुड़ गए; वे सभी मूर्ख और अज्ञानी थे -- ऐसे लोग दुनिया में अधिक उपद्रव ही पैदा कर सकते हैं। सभी धर्मों ने ठीक यही किया है।


शिष्यों के सीधे आपस में जुड़ने के कारण हमने बहुत कष्ट देखे हैं -- धर्मों का निर्माण, पंथ-संप्रदाय, और फिर अंतहीन झगड़े।


कम से कम मेरे साथ इसे याद रखना: 
तुम एक-दूसरे के साथ किसी भी तरह से नहीं जुड़े हो। बस एक मैत्री-भाव, ठोस मित्रता, पर्याप्त है, और अधिक सुंदर भी; और यह भविष्य में मानवता को किसी तरह का नुकसान पहुँचाने की किसी भी संभावना से रहित भी है।


💓ओशो 💓
बियांड इनलाइटेनमेंट